भोजपुरी संगम की 170 वीं ‘बइठकी’ सम्पन्न
गोरखपुर। 'भोजपुरी संगम' की 170 वीं बइठकी 66, खरैया पोखरा स्थित संस्था कार्यालय पर डाॅ.आद्या प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता एवं अवधेश 'नन्द' के संचालन में सम्पन्न हुई। बइठकी के प्रथम सत्र में नन्द कुमार त्रिपाठी की कहानी 'कलवता फूआ' की समीक्षा की गई। समीक्षा क्रम का आरम्भ करते हुए श्यामता प्रसाद श्रीवास्तव ने कहा कि बदलते दौर में आजकल लोग शादी-ब्याह आदि संस्कारों में बहुत से रीति-रिवाज भूलते और छोभोजपुरी संगम की 170 वीं 'बइठकी' सम्पन्नड़ते जा रहे हैं, ऐसे कालखण्ड में ऐसी कहानियों का लेखन बहुत ज़रूरी हो गया है। समीक्षा क्रम को आगे बढा़ते हुए चन्द्रगुप्त वर्मा 'अकिंचन' ने कहा कि कहानी और उसके पात्रों को जीवंत भूमिका में रखते हुए कहानीकार ने कहानी के साथ भरपूर व सराहनीय न्याय किया है। डाॅ.धनंजय मणि त्रिपाठी ने कहानी में प्रयुक्त ठेठ भोजपुरी शब्दों को रेखांकित करते हुए एक अच्छी कहानी बताई। डाॅ. बहार गोरखपुरी ने परम्परागत दहेज आदि कुरीतियों के विरुद्ध नारी जागरण को बल प्रदान करने वाली उम्दा कहानी के रूप में इसकी सराहना की। डाॅ.फूलचन्द प्रसाद गुप्त ने कहानी के सुखान्त कथानक एवं मुहावरों के सार्थक प्रयोग की सराहना की। डाॅ.आद्या प्रसाद द्विवेदी ने कहानी में निहित साहसी घटना क्रम एवं नई चेतना संचार के दृष्टिकोण से कहानी को महत्वपूर्ण बताया।
बइठकी के दूसरे सत्र में कवियों ने अपनी भोजपुरी की समृद्ध रचनाओं का पाठ किया-
श्रीमती कमलेश मिश्रा ने बइठकी का अप्रतिम श्रृंगार किया-
कब अइहें सखि मोर सँवरिया,
दरस को तरसत मोर नजरिया।
यशस्वी ‘यशवंत’ ने धारदार व्यंग्य रचना पढ़ी –
दू नंबर कऽ काम करेला, दोहरा ओकर चरित्तर हऽ, बाहर से गोरहर हऽ बाकिर, तवा के पेनी भीतर हऽ।
गोपाल दुबे ने भोजपुरी में पसरी फूहड़ता के प्रतिरोध में आग्रह किया-
हमरे पुरखन कऽ हऽ थाती हमार जेवर ए बबुआ,
भासा भोजपुरी के करा न छीछालेदर ए बबुआ।
सुधीर श्रीवास्तव ‘नीरज’ ने चइता का रस बरसाया-
खनके ला मोर कंगनवा हो रामा, चइत महिनवाँ।
डॉ.बहार गोरखपुरी के दोहों ने भोजपुरी को नया आयाम दिया-
अइसे-कइसे हो सकी, ई दुनिया आबाद,
चेला चाभे राबड़ी, झंखत बा ओस्ताद।
सृजन गोरखपुरी ने अपनी चर्चित ग़ज़ल का पुनर्पाठ किया –
सील सुगना हलाक हो गइल
बेहयन कअ खोराक हो गइल
रामसमुझ ‘सांँवरा’ के मधुर गीत ने ‘बइठकी’ को ऊंचाई प्रदान की-
बइठि के मुंँडेर कागा बोले कांँव-कांँव हो,
अइहें परदेसिया बुझाता आजु गाँव हो।
नंद कुमार त्रिपाठी के दोहे खूब सराहे गए-
अरबन-खरबन लीलि के, मितऊ चले बिदेस,
ढोई ओनकर बोझ अब, सगरो भारत देस।
सुभाष चंद्र यादव के चइता की सरस प्रस्तुति ने मोहित किया –
कहिया ले होई दरसनवा हे रामा, तरसे नयनवा।
डॉ.अजय 'अन्जान', अवधेश शर्मा 'नंद',अरविन्द 'अकेला', ओम प्रकाश पांडेय 'आचार्य', राम सुधार सिंह 'सैंथवार', अजय कुमार यादव एवं शिवेंद्र मणि त्रिपाठी के प्रतिनिधि रचनाओं की सुरमयी प्रस्तुति ने बइठकी को ऊंचाई प्रदान की।
उपरोक्त के अलावा डॉ.फूलचंद प्रसाद गुप्त, संरक्षक इं.राजेश्वर सिंह, रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी, जय प्रकाश नायक, इं.प्रवीण सिंह, डॉ.विनीत मिश्र आदि लोगों की उपस्थिति से समृद्ध बइठकी के अंत में संयोजक कुमार अभिनीत ने अगले माह के आयोजन के बारे में जानकारी देते हुए सभी के प्रति आभार प्रकट किया।